अब जो विशेष टाईम चल रहा है बहुत परिक्षा ले रहा है ,
अब भगति और मर्यादा पर दृढ होना पड़ेगा नही तो कोई ठौर ठिकाना नही है हमारा ।
अब एक बार विचलित हुऐ तो संभलना मुश्किल है क्योकि ये जगत की मान मर्यादा भगत के लिए हमेशा से अवरुध बनती आ रही है जब तक हमारा विश्वाश मालिक पर है बाल बाँका ना होगा ,चाहे लाख बार कार काल परेशानीयाँ दे फिर भी मालिक की रजा मे खुश होना मालिक कहते है की
कबीर,द्वार धन्नी के पड़ा रह ,
धक्के धन्नी के खाइये ।
लख बार काल झकझोर ही ,
द्वार छोड़ के ना जाईये ।
जो भी दुःख हमे मालिक की शरण मे रहते हुऐ भी आता है वो ऐसे होता है जैसे हमारे भाग्य मे मौत हो और उस संस्कार को काट कर काँटे मे बदल देते है
मालिक कहते है कि
कबीर,सतगुरु शरण मे आय ,
आई टलै बला ।
जै मस्तक मे सूली हो ,
काँटे मे टल जाऐ ।।
हर संस्कार की फेर बदल सच्चा सतगुरु कर सकता है मालिक कहते है कि -
कबीर,मासा घटे ना तिल बढे ,
विधना लिखे जो लेख ।
साच्चा सतगुरु मेट कर ,
उपर मार दै मेख ।।
जब तक हम बिल्कुल आधिन नही होते तो पुर्ण रजा मालिक की नही होती ।
मालिक कहते है कि
कबीर,आधिनि के पास है ,
पुर्ण ब्रह्म दयाल ।
मान बड़ाई मारियो ,
बेअदबी सिर काल ।।
मालिक की अमृत वाणी
मे शब्द -
कबीर भक्ति की भिक्षा दे दीजो,
उम्मीद कटोरा ल्याया है ।। टेक
तजे नरसी वाले ठाठ नहीं,
मैं धन्ना जैसा जाट नहीं ।
मेरी मोरध्वज सी सांठ नहीं,
जिसने लड़का चीर चढाया है ।।
शेख फरीद जैसा तप नहीं,
मेरा बालमीक जैसा जप नहीं ।
मंसूर सी अनलहक नहीं,
जिसने टुकड़े शरीर करवाया है ।।
ध्रुव जैसे आस नहीं,
प्रहलाद जैसा विश्वास नहीं ।
मीरा जैसा रास नहीं,
जिसने रूह अरु नाच रिझाया है ।।
रंका बंका जैसा त्याग नहीं,
मेरा बजीद जैसा बैराग नहीं ।
करमा जैसा भाग नहीं,
जिसका आन खीचड़ा खाया है ।।
विदुर विदुरानी जैसा सम्मान नहीं,
मैं सम्मन जैसा यजमान नहीं ।
सेऊ ज्यो कुर्बान नहीं,
जिसने शीश तो लेखे लाया है ।।
मार्कंडेय जैसा ऋषि नहीं,
मैं सुखदेव जो इन्द्री कसी नहीं ।
ये माया भी मन में बसी नहीं,
जबसे ज्ञान तेरा समाया है ।।
धर्मदास जैसा भक्ति सेठ नहीं,
मेरा जीवा-दत्ता जैसे उलसेठ नहीं ।
पीपा जैसा ढीठ नहीं,
जिसने दरिया बीच बुलाया है ।।
दिया द्रौपदी जैसा लीर नहीं,
कोई बनया भजन में शीर नहीं ।
मेरी भीलनी जैसी धीर नहीं,
जिसने बन के बीच घुमाया है ।।
साम्भर में दादूदास मिले,
फिर नानक को कर ख्यास मिले ।
सुल्तानी को हो खवास मिले,
जिसका बिस्तर झाड़ बिछाया है ।।
अर्जुन सर्जुन ने पहचान लिए,
छुडानी में दर्शन आन किये ।
ये रानि-नंदन उन जान लिए,
बलराम पिता जनाया है ।।
संतोष दास को पार किया,
बनखंडी का उद्धार किया ।
इक भूमड भक्त से प्यार किया,
जो शरना तेरी आया है ।।
छुडानी में निर्वान होया,
फिर सहारनपुर परमान होया ।
घीसा संत खेखड़े आन होया,
जहां जीता दास चेताया है ।।
गणिका जैसे पाप किये,
और अजामेल से आघात किये ।
साथ किस विधि ये नाथ लिए,
समदर्शी फ़र्ज़ निभाया है ।।
मात पिता और बंधू आए,
माया जोडन खूब सिखाये ।
भक्ति के ना लारा लाये,
उल्टा ही पाठ पढाया है ।।
जवानी के होती जात नहीं,
कोई मिल्या भजन में साथ नहीं ।
मेरी सुनीति सी मात नहीं,
जिसने बेटा भक्त बनाया है ।।
पांचो विकार सताते हैं,
मन चाहा नाच नचाते हैं ।
हे साहिब हम ना बच पाते हैं,
माया ने जाल पसारा है ।।
स्वामी रामदेवानंद जैसा संत नहीं,
मैं भक्तों जैसा भक्त नहीं ।
रामपाल को चाहिए जगत नहीं,
इक तेरा ही शरना चाहा है ।।
Comments
Post a Comment