लुटेरा कामदेव .......

लुटेरा कामदेव .......

हे धर्मदास ! अब मैँ पाँचवी काम इन्द्रिय यानी जननेन्द्रिय के बारे में समझाता हूँ । इसका संबंध जल तत्व से है । जिसका कार्य मूत्र वीर्य का त्याग और मैथुन करना होता है । यह मैथुन रूपी कुटिल विषय भोग के पाप कर्म में लगाने वाली महान अपराधी इन्द्री है । जो अक्सर इंसान को घोर नरकों में डलवाती है । इस इन्द्री के द्वारा जिस दुष्ट काम की उत्पत्ति होती है । उस दुष्ट प्रबल कामदेव को कोई बिरला साधु ही वश में कर पाता है । काम वासना में प्रवृत करने वाली कामिनी का मोहिनी रूप भयंकर काल की खानि है । जिसका गृस्त जीव ऐसे ही मर जाता है । और कोई मोक्ष साधन नहीं कर पाता । अतः गुरु के उपदेश से काम भावना का दमन करने के बजाय भक्ति उपचार से शमन करना चाहिये ।

स्पष्टीकरण - यहाँ बात सिर्फ़ औरत की न होकर स्त्री पुरुष में एक दूसरे के प्रति होने वाली काम भावना के लिये है । क्योंकि मोक्ष और उद्धार का अधिकार स्त्री पुरुष दोनों को ही समान रूप से है । अतः जहाँ कामिनी स्त्री पुरुष के कल्याण में बाधक है । वहीं कामी पुरुष भी स्त्री के मोक्ष में बाधा समान ही है । काम विषय बहुत ही कठिन विकार है । और संसार के सभी स्त्री पुरुष कहीं न कहीं काम भावना से गृसित रहते हैं । काम अग्नि देह में उत्पन्न होने पर शरीर का रोम रोम जलने लगता है । काम भावना उत्पन्न होते ही व्यक्ति की मन बुद्धि से नियंत्रण समाप्त हो जाता है । जिसके कारण व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक पतन होता है ।

हे धर्मदास ! कामी क्रोधी लालची व्यक्ति कभी भक्ति नहीं कर पाते । सच्ची भक्ति तो कोई शूरवीर संत ही करता है । जो जाति वर्ण और कुल की मर्यादा को भी छोङ देता है ।

कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वर्ण कुल खोय ।

अतः काम जीवन के वास्तविक लक्ष्य मोक्ष के मार्ग में सबसे बङा शत्रु है । अतः इसे वश में करना बहुत आवश्यक ही है ।

हे धर्मदास ! इस कराल विकराल काम को वश में करने का अब उपाय भी सुनो । जब काम शरीर में उमङता हो । या कामभावना बेहद प्रबल हो जाये । तो उस समय बहुत साबधानी से अपने आपको बचाना चाहिये । इसके लिए स्वयँ के विदेह रूप को या आत्मस्वरूप को विचारते हुये सुरति ( एकाग्रता ) वहाँ लगायें । और सोचें कि मैं ये शरीर नहीं हूँ । बल्कि मैं शुद्ध चैतन्य आत्मस्वरूप हूँ । और सत्यनाम तथा सदगुरु ( यदि हों ) का ध्यान करते हुये विषैले काम रस को त्यागकर सत्यनाम के अमृतरस का पान करते हुये इसके आनन्ददायी अनुभव को प्राप्त करे ।

हे धर्मदास ! काम शरीर में ही उत्पन्न होता है । और मनुष्य अज्ञानवश स्वयँ को शरीर और मन जानता हुआ ही इस भोग विलास में प्रवृत होता है । जब वह जान लेगा कि वह 5 तत्वों की बनी ये नाशवान जङ देह नहीं है । बल्कि विदेह अविनाशी शाश्वत चैतन्य आत्मा है । तब ऐसा जानते ही वह इस काम शत्रु से पूरी तरह से मुक्त ही हो जायेगा ।
मनुष्य शरीर में उमङने वाला ये काम विषय अत्यन्त बलबान और बहुत भयंकर कालरूप महाकठोर और निर्दयी है । इसने देवता मनुष्य राक्षस ऋषि मुनि यक्ष गंधर्व आदि सभी को सताया हुआ है । और करोंङो जन्मों से उनको लूटकर घोर पतन में डाला है । और कठोर नरक की यातनाओं में धकेला है । इसने किसी को नहीं छोङा । सबको लूटा है ।

लेकिन जो संत साधक अपने ह्रदय रूपी भवन में ज्ञान रूपी दीपक का पुण्य प्रकाश किये रहता हो । और सदगुरु के सार शब्द उपदेश का मनन करते हुये सदा उसमें मगन रहता हो । उससे डरकर ये कामदेव रूपी चोर भाग जाता है ।

जो विषया संतन तजी, मूढ ताहे लपटात ।
नर ज्यों डारे वमन कर, श्वान स्वाद सो खात ।

कबीर साहब ने ये दोहा नीच काम के लिये ही बोला है । इस काम रूपी विष को जिसे संतों ने एकदम त्यागा है । मूरख मनुष्य इस काम से उसी तरह लिपटे रहते हैं । जैसे मनुष्यों द्वारा किये गये वमन यानी उल्टी या पल्टी को कुत्ता प्रेम से खाता है ।

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Comments

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